रचना की रफ्तार से पड़ते हैं जहां वार

पूरी दुनिया अपने अपने कारोबार में लगी है। हमेशा से लगी रही है। कारोबारों के बगैर ये दुनिया शायद ऐसी नहीं होती, जैसी है। खेती, किसानी, मजदूरी, मालिक-मुख्तारी, नेतागिरी, दलाली इन कारोबारों का हिस्सा रही है। सबने इस दुनिया को अपने अपने तरीके से बनाने की कोशिश की है। इन सामूहिक कोशिशों की बदौलत ही ये दुनिया न स्वर्ग है न नरक। अपनी जैसी है, जहां खुशी, दुख, ईर्ष्या और दोस्ती-कुर्बानी के संस्कारों के साथ हम मौजूद हैं। फिर वो खलिश कौन सी है, जो हमारी इस दुनिया में एक और दुनिया खोजने के लिए चिंतित करती रहती है? गवैये के पास सबसे अच्छे सुर और खोज की चिंता रहती है, धावक उड़ने के ख्व़ाब देखता है। प्रेमचंद के पास पुश्तैनी थोड़ी जायदाद थी, बाद में अपना प्रेस हो गया। आराम से खा-पी सकते थे, क्यों बेवजह कहानियां लिखते थे। मुक्तिबोध के पास जितना दिमाग था, वो अच्छी कंपनी के डाइरेक्टर हो सकते थे, लेकिन अभिव्यक्ति की त्रासद पीड़ा ने उन्हें हमेशा गऱीब रखा। दरअसल बहुत कुछ होने और संतोष के परम भाव के बाद भी बची हुई थोड़ी-सी अतृप्ति आदमी को उस वीरान टीले पर ले जाती है, जहां खड़े होकर वह ज़ोर-ज़ोर से चीख सके। दुनिया को बता सके कि... हम भी हैं, तुम भी हो, आमने-सामने।

पूरी दुनिया में अपनी संवेदना को शब्दों के जरिये कहने की बेचैनी दरअसल यही है। हम भी हैं, तुम हो, आमने-सामने। कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें। लेकिन काग़ज पर लिखा हुआ बहुत देर तक एकालाप की तरह गूंजता है। लेखक की आंखों में घूमती हुई स्याही कई तरह के चित्र बनाती है, लेकिन इन चित्रों की कद्र होने में कई बार बहुत देर हो जाती है। इंटरनेट पर ब्लॉग्स के जरिये सामने आ रही लिखत-पढ़त को बहुत जल्दी कद्रदान भी मिल रहे हैं और थू-थू करने वाले भी। अंग्रेज़ी में कई ब्लॉगर हैं, जो दरअसल तकनीकवेत्ता हैं- जब भी फुर्सत मिलती है, वे कुछ टिप्स अपने ब्लॉग पर छोड़ते हैं। हिंदी में भी हैं, जैसे रवि रतलामी, जितेंद्र चौधरी और ये लोग हर रोज़ या दो-तीन दिनों पर कुछ नयी बातें बताते हैं कि इंटरनेट से जुड़ी तकनीक में कहां-कहां क्या-क्या इज़ाफा हुआ है। हिंदी के लिए कितनी सहूलियतें उन इज़ाफों में शामिल हैं। लेकिन हिंदी में इन सूचनाओं को बांटने का आंदोलनी जज्ब़ा ज्य़ादा है। वरना एक हैं अमित अग्रवाल (http://labnol.blogspot.com/), अंग्रेज़ी ब्लॉगर, जिनकी एक दिन की कमाई है एक हज़ार डॉलर। यानी हर रोज़ क़रीब पैंतालीस हज़ार रुपये। हालांकि हिंदी कभी इस आमदनी तक नहीं पहुंचेगी, लेकिन अभिलाषा पालने वाले दर्जनों ब्लॉगर हिंदी में लगे-पड़े हुए हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हिंदी के बहुत सारे लेखक कभी अनायास बुकर या नोबल मिल जाने की ख्वाहिशों का खुशी देने वाला गम़ पाले हुए कुछ महान लिखने की कोशिश में रत हैं।

हिंदी का एक कवि किसी पत्रिका से हज़ार रुपये का मेहनताना पाकर परम प्रसन्नचित्त रहता है, वैसे ही हिंदी के बहुधा ब्लॉगर एक-एक टिप्पणी से निहाल रहते हैं। अभी तक सर्वाधिक टिप्पणियों रिकॉर्ड सृजनशिल्पी नाम के एक सज्जन के खाते में है, जिनकी सुभाष चंद्र बोस को कर्ण बताने वाले एक शोधपरक रचना पर कुल ४२ क्रिया-प्रतिक्रिया हुई थी। अनूप शुक्ला नाम के एक सज्जन लिखते हैं- इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरु राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। अब ऐसी बहसों से हिंदी को आज़ाद हो जाना चाहिए, लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग अभी रामचरितमानस से शुरू होना चाह रही है। लेकिन कुछ संजीदा किस्म के लोग अब भी आगे की बहसों को उठा रहे हैं, जो वाकई समय की पेचीदगियों से मुठभेड़ करती हैं। कई सारे ब्लॉगरों को ऐसी टिप्पणियां मिलती रही हैं, जो किसी नाम से नहीं होतीं। वे बेनाम टिप्पणियां होती हैं। बेनाम प्रतिक्रियाओं के संसार की एक सहूलियत ये है कि इसमें नौकरियां बच जाती हैं और दोस्त दुश्मन होने से रह जाते हैं, लेकिन एक दूसरी सहूलियत है आज़ादी के एक नये क्षितिज की है। इन बेनाम चादरों की सहूलियतों पर हिंदी ब्लॉगिंग में जम कर बहस हुई।

मसिजीवी नामधारी ब्लॉगर ने कहा- मुझे मुखौटा आज़ाद करता है... ध्यान दें कि खत़रा यह है कि यदि आप इसे वाकई मुखौटों से मुक्त दुनिया बना देंगे तो ये दुनिया बाहर की 'रीयल' दुनिया जैसी ही बन जाएगी- नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं, वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी (ब्लॉगिंग) करते हैं, एक झीना मुखौटा पहनते हैं, जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो- ये हमें मुक्त करता है।

हिंदी ब्लॉगिंग इंटरनेट पर अभिव्यक्ति का ऐसा ईजाद है, जो पर्देदारी को आज़ादी का एक और आयाम बताता है और जिस पर्देदारी में आप अपना आस-पड़ोस बिना संकोच के उघाड़ सकते हैं। और उस उघड़न पर चंद मिनटों में लाठी-बंदूक का वार भी पड़ जाएगा। सो इंतज़ार कीजिए, हिंदी ब्लॉगिंग आने वाले वक्त में हज़ारों मंटो-इस्मत की कतार खड़ी करेगा।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। अभय तिवारी मुंबई में सिनेमा-सीरियल के लिए लिखते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक नन्हा-सा चिट्ठा लिखा था- ऐ लम्बरदार, जियादा लंतरानी ना पेलो। कुछ इस तरह...

गांव-कस्बे के सहज बोल बचन हैं- ऐ ना पेलो के अलावा, यहां जो बाकी शब्द हैं, उनका मूल अरबी भाषा में है। लम्बरदार बिगड़ा हुआ रूप है अलमबरदार का। अलम का मायने है झंडा, और बरदार फ़ारसी का प्रत्यय है, जिसका अर्थ है उठाने वाला। तो झंडा लेकर आगे-आगे चलने वाले को अलमबरदार कहा जाता है। और अपनी देशज भाषा में भी इसका लगभग यही अर्थ है। नेता मुखिया के लिए प्रयुक्त होता है। जियादा में ज़ियाद: फेरबदल नहीं हुई, मगर लन्तरानी! लन्तरानी का अर्थ है, 'तू मुझे नहीं देख सकता`। अयं? ये शब्द है कि वाक्य? असल में ये वाक्य ही है, जो ईश्वर ने मूसा से कहा है। जब मूसा ने उनको देखने की इच्छा प्रगट की। ईश्वर का यहां पर तौर ये है कि कहां मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर और कहां तू एक अदना मनुष्य। इसी मूल भावना को ध्यान में रख कर इस वाक्य का प्रयोग एक मुहावरे के बतौर होता है। बहुत-बहुत बड़ी बड़ी बातें पेलने वाली प्रवृत्ति को चिन्हित करने के लिए। इतनी मासूम सी बात है, क्या आप को लग रहा है कि मैं लनतरानी पेल रहा हूं?

अगली बार हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा के चंद रूपक पेश करेंगे।

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