अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर इंटरनेटीय अनंत की दस्तक

साहित्य की शुरुआत नीली स्याही से हुई होगी। पहले तालपत्र, फिर एक अदद कलम और तब सादा काग़ज। मानस तालपत्र पर लिखा गया होगा, लेकिन १८वीं और १९वीं सदी की महान कृतियों को काग़ज के कारखानों ने संजीवनी दी। छापेखानों ने इसे धरोहर होने के लिए ज़मीन दी। फिर टाइपराइटर के शोर में खामोश दिमाग से लिखी गयी कई किताबों को नोबेल प्राइज़ भी मिला। धीरे-धीरे लिखना-पढ़ना कारोबारी तकनीक की तरह नये नये ईजाद से सहारा पाने लगा। अब ढेर सारे लोग कंप्यूटर पर लिखते हैं। ये ईजाद मन की दौड़ के हिसाब से आपका सृजन पन्नों पर उतारता है।

उदारीकरण के बाद देश के दफ्तर कंप्यूटर के हवाले हो गये। हालांकि अब भी आदमियों की दरकार खत़्म नहीं हुई, क्योंकि मशीनें मेमोरी से तो भरी होती हैं, लेकिन मस्तिश्क से महरूम। इस देश में साक्षर आबादी का १५ फीसदी हिस्सा दफ्तरों में जाता है। श्रम के लिए कायदे से महीने में तनख्वाह पाता है। हिंदी साहित्य को इसका दशमांश भी नहीं पढ़ता है और लिखने वालों की तादाद दशमलव कुछ कुछ फीसदी है। दशमलव कुछ कुछ का ये तबका अभी भी अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं को लेकर मानकीकरण का शिकार है। कि वाक्य ऐसे लिखे जाते हैं, कविता कुछ इसी तरह से फूट सकती है, कहानियां सिर्फ पात्रों की ही हो सकती है, और बेहतर लिखाई तो सिर्फ कलम से ही हो सकती है।

आज इंटरनेट का वक्त है, और तमाम तरह के मानकीकरण के ध्वस्त होने का भी वक्त है। अब किताबों के लिए प्रकाशक नहीं चाहिए। आप लिखें, कंप्यूटर पर डालें और इंटरनेट से दुनिया भर के लिए जारी कर दें। लोग इत्मीनान से पढ़ना चाहेंगे, तो दफ्तर से प्रिंट आउट निकाल लेंगे। इतनी चोरी के लिए हमारी नैतिकता भी जगह दे देती है। हम बात करेंगे कि इंटरनेट कैसे हमारी सभ्यता को एक नयी शक्ल दे रहा है, अभिव्यक्ति के रास्तों पर कैसे कोलतार बिछा रहा है और विधाओं के मानकीकरण में कैसे तोड़-फोड़ मचा रहा है। इन मसलों पर बात अवधारणा और परिभाशाओं की ज़मीन पर करने से बेहतर है कुछ मसलन, जिसे खांटी हिंदी में उदाहरण के तौर पर कहते हैं, उसमें बात की जाए।

मसलन... सदी के शुरू में बहुत सारी किताबों के साथ प्रेमचंद का सोज़े-वतन प्रतिबंधित किया गया। साठ के दशक में नक्सली किताबें रखने वालों को कैद मिली और बहुधा इनकाउंटर भी मिला। दुनिया में आज भी किताबें बैन हो रही हैं, लेखकों को दरबदर होना पड़ता है और मौत के फतवे सुनाये जाते हैं। एक हादसा पिछले दिनों मिस्र के अलेक्ज़ेन्ड्रिया भाहर में हुआ, जब एक ब्लॉगर को व्यवस्था के विरोध में आर्टिकल लिखने के लिए चार साल की कैद हो गयी। २२ साल के अब्दुल करीम नाबिल नाम का ये भाख्स मिस्र के मशहूर अल-अज़हर युनिवर्सिटी का छात्र था और अपने ब्लॉग पर वो युनिवर्सिटी की खामियों के बारे में लिखा करता था।

अपने मुल्क में भी हिंदी के ब्लॉगरों पर २००६ के जुलाई महीने में बैन लगा दिया गया था। लेकिन मीडिया ने सरकार को इस सवाल पर सांसत में डाल दिया और आखिऱकार बैन हटाना पड़ा। ये ब्लॉग है क्या चीज़? एक डॉट कॉम होता है। पूरी की पूरी वेबसाइट- जैसे हंस, तद्भव, बीबीसी, गूगल और याहू। ये पत्रिका की तरह काम करती है। इसे एक समूह संचालित करता है और इसके लिए वेब स्पेस खऱीदनी पड़ती है। ब्लॉग के लिए आपको ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। गूगल, वर्डप्रेस और बहुत सारी वेबसाइट आपको अनगिनत पन्ने सौंपता है, और कहता है कि चाहे तो पूरी रामायण लिख लो। फिर आप अपनी पहली चौपाई लिखते हैं और चंद सेकेंड में आपकी चौपाई हवा में तैरने लगती है। धरती के किसी भी कोने में बैठा हुआ आदमी उसे गुन सकता है।

पूरी दुनिया में ब्लॉग क्रांति पिछले दशक का इजाद है। इसने अभिव्यक्ति के नये दरवाज़े खोले। ग्रुप ब्लॉग के ज़रिये ग्रुप नॉवेल भी लिखे गये। राजनीतिक प्रचार के हथकंडे की तरह इसका इस्तेमाल हुआ, और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिल़ाफ़ तथ्य रखे गये। इराक युद्ध के बारे में ब्रिटेन और इराक के ब्लॉग्स पर लिखा गया कि ये मनुष्‍यता के निषेध का वीभत्सतम अभियान है। बहरहाल ब्लॉग, तकनीकी दुनिया के भाशाई संस्कारों वाले लोगों के लिए अभिव्यक्ति का नया औज़ार है। इतना आसान, कि पारंपरिक तरीकों से लेखन के रियाज़ वाले लोग भी इसमें दखल दे सकें।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। रवीश कुमार एनडीटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं। उनका ब्लॉग है: कस्बा। वे रोज़ इस पर कुछ न कुछ लिखते हैं। १५ मार्च को उन्होंने पोस्ट किया- मुंशी प्रेमचंद की पहली विदर्भ यात्रा। सामाजिक कल्पनाशीलता का ऐसा मार्मिक वृत्तांत कि पढ़कर रोने को जी करता है। एक हिस्सा कुछ इस तरह है-

हमारी खब़र पर भी सरकार का असर नहीं होता। पी साईंनाथ की खब़रों पर भी कोई असर नहीं। साईंनाथ तो विदर्भ के किसानों के पीछे पागल हो गये हैं। सुप्रिया धीरे से कहती है- मुंशी जी इस बार कुछ नया लिख दीजिए ताकि आपको बुकर मिल जाए और किसानों को रास्ता। मगर इस बार किसानों को नियतिवाद में मत फंसाना। मत लिखना कि किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में मरता है।

वक्त मिले तो आप ज़रूर पढ़ें। इस बार इतना ही। अगली बार इंटरनेटीय अनंत के कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक रूपक से हम आपको वाबस्ता कराएंगे।

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