ब्‍लॉगिंग में कहन के पुराने कारीगर

हम अक्‍सर कुछ पन्‍नों के ख्‍वाब देखते हैं, जिन पर अपनी पसंद की संवेदनाएं, शब्‍द और रोज़मर्रा के कुछ-कुछ संदर्भ जब चाहें सजाते रहें। डायरी इन्‍हीं ख्‍वाबों के बीच चलन में आयी होगी। यहां तक कि ऐसे ही ख्‍वाबों से बेचैन होकर किसी ने डायरी का ईजाद भी किया होगा। हममें से कइयों के पास साल के शुरू में डायरी आती होगी, कुछ पन्‍ने भरते होंगे और कई बार सादे ही छूट जाते होंगे। आप जब भी पीछे मुड़ कर देखना चाहेंगे, उन सादे पन्‍नों के बीच टीले-टापू की तरह उगी हुई स्‍याही आपका अतीत मोह और जगा देगी। कई बार ये ख्‍वाहिश जगती है कि आप अपनी ज़‍िंदगी दूसरों के साथ भी साझा करें। कई बार आप उसे अपनी विनम्रता में टालते हैं, और कई बार आपको लगता है कि आपकी अपनी निजी ज़‍िंदगी में अभिव्‍यक्ति के सार्वजनिक मंचों की दिलचस्‍पी क्‍यों होगी। मोहन राकेश की डायरी में भी किसने दिलचस्‍पी ली थी। वो भी तो बाद मरने के उनके घर से निकल पाया।

बहरहाल, ये सारी छवियां एक अदद डायरी और एक अदद कलम की अनिवार्यता से जुड़ी हुई छवियां हैं। अब आपके पास कलम नहीं है। इसलिए नहीं कि वो बाज़ार में नहीं बिकती। बिकती है, और ख़रीदने वाले अब भी ख़रीदते हैं। लिखने वाले अब भी कलम से ही लिखते हैं। लेकिन कंप्‍यूटर शिक्षा की आंधी में जो नस्‍लें बड़ी हो रही हैं, उनका ताल्‍लुक कलम और काग़ज़ से धीरे-धीरे कम हो रहा है। वे की-बोर्ड के सिपाही बन रहे हैं। यानी अपनी बात कहने का हथियार बदल गया। इंटरनेट सस्‍ता होने के बाद इस हथियार की सहूलियत ये है कि आपका मन, आपकी डायरी, आपकी ज़‍िंदगी आप सबसे साझा कर सकते हैं और ब्‍लॉगिंग के ज़रिये इसका सिलसिला शुरू भी हो गया है।

उदय प्रकाश हिंदी के बड़े कथाकार हैं। उनको पढ़ना एक जादूई अनुभव से गुज़रना है। तिरिछ, वारेन हेंस्टिंग्‍स का सांड, पॉल गोमरा का स्‍कूटर, और अंत में प्रार्थना और दिल्‍ली की दीवार जैसी कहानियां पढ़ते हुए हममें से कइयों ने कहानियों की अपनी समझ विकसित की होगी। हिंदी के सारे मंच उनके लिए उपलब्‍ध हैं, इसके बावजूद उन्‍होंने हिंदी ब्‍लॉगिंग में अपने लिए भी एक कोना चुना है। ख़ास बात ये है कि उस कोने में वे उन चीज़ों को ज़्यादा तवज्‍जो दे रहे हैं, जो उन्‍हें अच्‍छी लग रही हैं। कोई कविता, कोई स्‍केच। ये जानना सचमुच दिलचस्‍प है कि जो सबसे अधिक पढ़े और पसंद किये जाते हैं, उनकी पसंद क्‍या है। उदय प्रकाश का ब्‍लॉग उदय प्रकाश की पसंद बताता है।

ज्ञानरंजन के संपादन में कई दशकों से निकलने वाली हिंदी की ज़रूरी पत्रिका पहल में छपी शाकिर अली की कुछ कविताएं उदय को इतनी पसंद आयीं कि उन्‍होंने एक लंबी भूमिका के साथ उसे अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित की। छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम का खौफनाक मंज़र पेश करने वाली एक कविता स्‍कूल बंद है उन्‍हीं में से एक है।
मोटरसाइकिल से स्कूल जाते गुरुजी को
किसी ने आवाज दी- रुको !
गुरुजी डर के मारे नहीं रुके,
पता नहीं जंगल में कौन रोक रहा है?

पीछे से गोली चली,
गुरुजी खून से लथपथ गिर पड़े थे,

तभी से कोन्गुड का स्कूल बन्द है !!
शाकिर अली की कविताओं को पेश करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं कि जब हमारी आज की समकालीन हिंदी कविता दिल्‍ली, भोपाल और दूसरी राजधानियों के कवियों की मित्र मंडलियों के ऊबाऊ और एक-दूसरे को उठाने-गिराने की लिजलिजी भाषाई बाजीगरी, महान होने और महान बनाने की संस्‍थाखोर जुगाड़ू तिकड़म और विचारधाराओं की आड़ में हिंसक जातिवादी अभियानों में बदल चुकी है, शाकिर अली की कविता विपदा में घिरे हमारे समय के कमज़ोर और ग़रीब लोगों के जीवन के भयावह दृश्‍य प्रस्‍तुत करती है।

उदय प्रकाश ने कुंवर नारायण के जन्‍मदिन पर अपनी पसंद की उनकी एक कविता भी अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित की। बहरहाल, एक कथाकार, जो एक कवि भी है, लेकिन अपनी कहानियों से पाठकों को दीवाना बना रहा है, उसे इन दिनों क्‍या कुछ बेचैन कर रही है, ये जानने के लिए अब उन्‍हें ख़त लिखने से बेहतर है, उनके ब्‍लॉग की यात्रा करें। पता बड़ा सीधा सा है, uday-prakash.blogspot.com।

कवि विष्‍णु नागर ने भी ब्‍लॉगिंग शुरू की है। वे पत्रकार भी हैं और व्‍यंग्‍य कथाएं भी रचते हैं। उनका ब्‍लॉग (alochak.blogspot.com) कुछ कविताओं और व्‍यंग्‍य कथाओं से सजा हुआ है। वहां ईश्‍वर की चार कहानियां मौजूद हैं, जिनमें से एक कुछ इस तरह है:
ईश्‍वर ईश्‍वर होकर भी उस दिन भूखे थे। दोपहर का वक्‍त था। दो आदमी बातें कर रहे थे, 'आदमी को बस आदमी का प्‍यार चाहिए।'

'और अगर दोपहर का एक बज चुका हो तो खाना भी चाहिए', ईश्‍वर ने कहा।

लेकिन लोगों ने उनकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया।
इनके अलावा पत्रकार राजकिशोर (raajkishore.blogspot.com) और सत्‍येंद्र रंजन (left-liberal.blogspot.com) ने भी ब्‍लॉगिंग शुरू की है। ये सारे ब्‍लॉग हिंदी ब्‍लॉगिंग की सबसे हालिया गतिविधि हैं। इस गतिविधि का मानी ये निकलता है कि कहन के वे कारीगर, जिन्‍हें हिंदी के पुराने-पारंपरिक मंचों पर जगह मिलने में कोई कठिनाई नहीं है, वे भी अभिव्‍यक्ति की इस नयी जगह-ज़मीन को गंभीरता से ले रहे हैं। साथ ही ये भी मानना चाहिए कि वो ऑडिएंस, जिनके पास किताबों के साथ वक्‍त गुज़ारने की फुर्सत नहीं है, उन्‍हें भी ये लेखक-पत्रकार गंभीरता से ले रहे हैं और अपनी सोच-समझ ब्‍लॉगिंग के ज़रिये उनसे साझा कर रहे हैं।

बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग

हिंदी की चिंता करते हुए सुधीश पचौरी जब अनउलटनीय जैसे भाब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, तो भाषा के शास्‍त्रीय संस्कारों वाले हमारे दोस्तों को लगता है कि इस तरह का प्रयोग एक ऐसे ज़लज़ले की तरह है, जो हमारी भाषा को खत़्म कर देगा। वहीं कुछ लोग हिंदी में समंदर पार के लोकप्रिय और सहज शब्दों की आवाजाही की वकालत करते हैं। कहते हैं, अंग्रेज़ी इसलिए फैल रही है, क्योंकि उसकी शब्द सामर्थ्य फैल रही है। उदाहरण के तौर पर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की बात बताते हैं। कहते हैं कि हर संस्करण में दूसरी भाशाओं के कुछ-एक शब्द जुड़ जाते हैं। यह किसी भी भाषा के अमीर होने का राज़ है कि उसकी खिड़कियां खुली है। अंग्रेज़ी के संदर्भ में इस बात का हामी होने के बावजूद हमें अंग्रेज़ी के फैलने की ज्यादा वज़ह उसके साम्राज्य का फैलना लगता है।

बहरहाल, शब्द ज़रूरी हैं और हिंदी में शब्द कम हो रहे हैं। यही वजह है कि इस भाषा में रचे जाने वाले साहित्य का असर उसके समाज पर नहीं है। किताबें कम बिकती है और सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई क्या लिख रहा है। इसके बावजूद कि हर साल कुछ स्वायत्त सरकारी संस्थानों की तरफ से हिंदी के मेधावी लोगों को पुरस्कार मिलते हैं और बाकी मेधावी लेखकों को पुरस्कार पायी किताब की सामाजिक ज़रूरत से ज्यादा ईर्ष्या भाव से मुठभेड़ करनी पड़ती है। ऐसी हिंदी में किसी बड़े लेखक के साहित्य के अधिकांश भाग को कूड़ा कहने पर नामवर सिंह फंस गये हैं। वे फंस इसलिए गये, क्योंकि उन्होंने ऐसी हिंदी में लिखने से ज्यादा बोलना ज़रूरी समझा। अगर बोलने की तादाद में लिखा होता, तो वे ऐसे बयान से पहले अपनी तरफ देख गये होते और तब बनारस की अदालत का मूर्ख न्यायाधीश उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता।

खैर, हिंदी जैसी है, उसे वैसी ही रहने दिये जाने की तरफदारी अनामदास नहीं कर रहे। वे यूएसए में रहते हैं। उनका असली नाम क्या है, किसी को नहीं मालूम। किसी को... मतलब... इंटरनेट पर हिंदी में सक्रिय उन तमाम ब्लॉगरों को, जो अनामदास के लेखन के कायल हैं। उनके ब्लॉग का पता है: http://anamdasblog.blogspot । वे लिखते हैं,
'आप उतने ही शब्द जानते हैं, जितनी आपने दुनिया देखी है। शब्द भंडार और अनुभव संसार बिल्कुल समानुपाती होते हैं।` इस इंट्रो के साथ वे बताते हैं कि अगर आप ये नहीं जानते, तो आपने ये नहीं किया और वो नहीं जानते तो आपने वो नहीं किया। इस तरह वे लिखते हैं, 'करनी, साबल, खंती, गैंता, रंदा, बरमा जैसे शब्द अगर आपको नहीं मालूम, इसका मतलब है कि आपके घर में मज़दूरों और बढ़ई ने कभी काम नहीं किया या फिर वे क्या करते हैं, क्यों करते हैं, कैसे करते हैं, इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं रही।`

ब्लॉग लेखन में सहूलियत ये है कि इसमें सृजन की पैदाइश के चंद मिनटों बाद ही लेखक से सीधे संवाद संभव है। हमने टिप्पणी की, 'आपकी बात सटीक है। शब्दों को लेकर हमारी साकांक्षता कैसी है, रही है- से ही हमारा शब्द संसार बीघा दर बीघा बढ़ता है। लेकिन आप सोचिए, उन किरायेदारों के बच्चों के पास कैसे शब्द आएंगे, जिनकी अपनी कोई ज़मीन, कोई कस्बा, कोई शहर न हो। मकान मालिक को घर में कुछ नया बनवाना होता है, तो घर खाली करने के लिए कह देता है। इस तरह बढ़ई की भाषा से हम अनजान रहते हैं। मकान मालिक कहेगा, मछली नहीं खाना है, तो मछली बाज़ार के शोरगुल में छिपा संगीत और मछलियों की किस्मों से हमारा रिश्ता सिमटता जाएगा। इस तरह जो इस देश में किरायेदार होने के लिए अभिशप्त हैं, उन्हें अपनी भाषा को लेकर जो कुंठा है, और अगर वे कुंठाएं कुछ शब्दों में ही बाहर आती हैं, तो क्या हम उन्हें मूर्ख कहेंगे?`

इस पर प्रमोद सिंह ने अपने ब्लॉग (http://azdak.blogspot.com) पर अच्छी हिंदी की दूसरी किस्त में लिखा, 'आप किराये के घरों में रहे हों या पिता-परिवार के रोज़गार के चक्कर में अजाने/अपनाये प्रदेशों में, आपकी भाषाई संस्थापना को वह ज़रा ऐड़ा-बेड़ा तो कर ही डालता है। विस्थापन और बेगानेपन में शाब्दिक संस्कार की वह वैसी नींव नहीं डालता, जो आपको तनी रीढ़ के साथ चाक-चौबंद दुरुस्त खड़ा करे। मगर साथ ही यह भी सही है कि इस अजनबीपन के अनजाने लोक में नये अनुभवों (शब्दों) की खिड़की भी खुलती है। अब यह आपको तय करने की बात है कि ये नई खिड़कियां आपकी (मानक) भाषाई हवेली में खुलेंगी या नहीं। ऐसी नयी हवाओं का वहां स्वागत होगा या वे दुरदुराई जाएंगी।`

हिंदी की पत्रकारीय ज़मीन पर ये विमर्श एकतरफा हो रहा है। सुधीश पचौरी को उनके लिखे पर प्रशंसा या लानत-मलामत से भरी पातियों की संख्या यकीनन नगण्य होगी। हिंदी थिसॉरस बना कर अरविंद कुमार रातोंरात जाने ज़रूर गये, लेकिन तमाम इंटरव्यू में वे इस सवाल से यकीनन बोर हो गये होंगे कि इस काम को करने में आपको कितने दिन लगे या इतने बड़े काम को आपने अंजाम कैसे दिया। अगर इनका काम वेब स्पेस के जरिये जारी होता, तो ब्लॉगिंग वाले सुधीश पचौरी से सवाल कर सकते हैं कि आप जिन नवीन शब्दों के साथ अपनी हिंदी मांज रहे हैं, उनके स्रोत क्या हैं। क्या वे स्रोत हिंदी के आम जन हैं, या वे जनविमुख पत्रिकाएं, जो महंगी दुकानों में पन्नी वाली ज़िल्द में मिलती हैं! मुझे लगता है कि अभी वेब स्पेस में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से विमर्श को अंजाम दिया जा रहा है। चाहे वह हिंदी की बात हो या हिंदी समाज की बात हो। यही वजह है कि हिंदी के जिन पूर्व परिचितों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सहूलियत आ रही है, वे ब्लॉगिंग शुरू कर रहे हैं। पागलदास कविता से मशहूर हुए बोधिसत्व, समकालीन जनमत की संपादकीय टीम के सक्रिय सदस्य चंद्रभूषण और इरफान और अर्थशास्त्र और व्यंग्य को समान रूप से साधने वाले आलोक पुराणिक इन दिनों ब्लॉग पर हर रोज़ कुछ न कुछ लिख रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस नये हथियार का स्वीकार हिंदी 'मन` के लिए ज़रूरी है, और जिस तरह से हिंदी के अखब़ार और पत्रिकाएं ब्लॉगिंग का ज़िक्र कर रही हैं, ये रोज़ाना इस्तेमाल की चीज़ हो जाएगी।

रचना की रफ्तार से पड़ते हैं जहां वार

पूरी दुनिया अपने अपने कारोबार में लगी है। हमेशा से लगी रही है। कारोबारों के बगैर ये दुनिया शायद ऐसी नहीं होती, जैसी है। खेती, किसानी, मजदूरी, मालिक-मुख्तारी, नेतागिरी, दलाली इन कारोबारों का हिस्सा रही है। सबने इस दुनिया को अपने अपने तरीके से बनाने की कोशिश की है। इन सामूहिक कोशिशों की बदौलत ही ये दुनिया न स्वर्ग है न नरक। अपनी जैसी है, जहां खुशी, दुख, ईर्ष्या और दोस्ती-कुर्बानी के संस्कारों के साथ हम मौजूद हैं। फिर वो खलिश कौन सी है, जो हमारी इस दुनिया में एक और दुनिया खोजने के लिए चिंतित करती रहती है? गवैये के पास सबसे अच्छे सुर और खोज की चिंता रहती है, धावक उड़ने के ख्व़ाब देखता है। प्रेमचंद के पास पुश्तैनी थोड़ी जायदाद थी, बाद में अपना प्रेस हो गया। आराम से खा-पी सकते थे, क्यों बेवजह कहानियां लिखते थे। मुक्तिबोध के पास जितना दिमाग था, वो अच्छी कंपनी के डाइरेक्टर हो सकते थे, लेकिन अभिव्यक्ति की त्रासद पीड़ा ने उन्हें हमेशा गऱीब रखा। दरअसल बहुत कुछ होने और संतोष के परम भाव के बाद भी बची हुई थोड़ी-सी अतृप्ति आदमी को उस वीरान टीले पर ले जाती है, जहां खड़े होकर वह ज़ोर-ज़ोर से चीख सके। दुनिया को बता सके कि... हम भी हैं, तुम भी हो, आमने-सामने।

पूरी दुनिया में अपनी संवेदना को शब्दों के जरिये कहने की बेचैनी दरअसल यही है। हम भी हैं, तुम हो, आमने-सामने। कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें। लेकिन काग़ज पर लिखा हुआ बहुत देर तक एकालाप की तरह गूंजता है। लेखक की आंखों में घूमती हुई स्याही कई तरह के चित्र बनाती है, लेकिन इन चित्रों की कद्र होने में कई बार बहुत देर हो जाती है। इंटरनेट पर ब्लॉग्स के जरिये सामने आ रही लिखत-पढ़त को बहुत जल्दी कद्रदान भी मिल रहे हैं और थू-थू करने वाले भी। अंग्रेज़ी में कई ब्लॉगर हैं, जो दरअसल तकनीकवेत्ता हैं- जब भी फुर्सत मिलती है, वे कुछ टिप्स अपने ब्लॉग पर छोड़ते हैं। हिंदी में भी हैं, जैसे रवि रतलामी, जितेंद्र चौधरी और ये लोग हर रोज़ या दो-तीन दिनों पर कुछ नयी बातें बताते हैं कि इंटरनेट से जुड़ी तकनीक में कहां-कहां क्या-क्या इज़ाफा हुआ है। हिंदी के लिए कितनी सहूलियतें उन इज़ाफों में शामिल हैं। लेकिन हिंदी में इन सूचनाओं को बांटने का आंदोलनी जज्ब़ा ज्य़ादा है। वरना एक हैं अमित अग्रवाल (http://labnol.blogspot.com/), अंग्रेज़ी ब्लॉगर, जिनकी एक दिन की कमाई है एक हज़ार डॉलर। यानी हर रोज़ क़रीब पैंतालीस हज़ार रुपये। हालांकि हिंदी कभी इस आमदनी तक नहीं पहुंचेगी, लेकिन अभिलाषा पालने वाले दर्जनों ब्लॉगर हिंदी में लगे-पड़े हुए हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हिंदी के बहुत सारे लेखक कभी अनायास बुकर या नोबल मिल जाने की ख्वाहिशों का खुशी देने वाला गम़ पाले हुए कुछ महान लिखने की कोशिश में रत हैं।

हिंदी का एक कवि किसी पत्रिका से हज़ार रुपये का मेहनताना पाकर परम प्रसन्नचित्त रहता है, वैसे ही हिंदी के बहुधा ब्लॉगर एक-एक टिप्पणी से निहाल रहते हैं। अभी तक सर्वाधिक टिप्पणियों रिकॉर्ड सृजनशिल्पी नाम के एक सज्जन के खाते में है, जिनकी सुभाष चंद्र बोस को कर्ण बताने वाले एक शोधपरक रचना पर कुल ४२ क्रिया-प्रतिक्रिया हुई थी। अनूप शुक्ला नाम के एक सज्जन लिखते हैं- इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरु राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। अब ऐसी बहसों से हिंदी को आज़ाद हो जाना चाहिए, लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग अभी रामचरितमानस से शुरू होना चाह रही है। लेकिन कुछ संजीदा किस्म के लोग अब भी आगे की बहसों को उठा रहे हैं, जो वाकई समय की पेचीदगियों से मुठभेड़ करती हैं। कई सारे ब्लॉगरों को ऐसी टिप्पणियां मिलती रही हैं, जो किसी नाम से नहीं होतीं। वे बेनाम टिप्पणियां होती हैं। बेनाम प्रतिक्रियाओं के संसार की एक सहूलियत ये है कि इसमें नौकरियां बच जाती हैं और दोस्त दुश्मन होने से रह जाते हैं, लेकिन एक दूसरी सहूलियत है आज़ादी के एक नये क्षितिज की है। इन बेनाम चादरों की सहूलियतों पर हिंदी ब्लॉगिंग में जम कर बहस हुई।

मसिजीवी नामधारी ब्लॉगर ने कहा- मुझे मुखौटा आज़ाद करता है... ध्यान दें कि खत़रा यह है कि यदि आप इसे वाकई मुखौटों से मुक्त दुनिया बना देंगे तो ये दुनिया बाहर की 'रीयल' दुनिया जैसी ही बन जाएगी- नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं, वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी (ब्लॉगिंग) करते हैं, एक झीना मुखौटा पहनते हैं, जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो- ये हमें मुक्त करता है।

हिंदी ब्लॉगिंग इंटरनेट पर अभिव्यक्ति का ऐसा ईजाद है, जो पर्देदारी को आज़ादी का एक और आयाम बताता है और जिस पर्देदारी में आप अपना आस-पड़ोस बिना संकोच के उघाड़ सकते हैं। और उस उघड़न पर चंद मिनटों में लाठी-बंदूक का वार भी पड़ जाएगा। सो इंतज़ार कीजिए, हिंदी ब्लॉगिंग आने वाले वक्त में हज़ारों मंटो-इस्मत की कतार खड़ी करेगा।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। अभय तिवारी मुंबई में सिनेमा-सीरियल के लिए लिखते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक नन्हा-सा चिट्ठा लिखा था- ऐ लम्बरदार, जियादा लंतरानी ना पेलो। कुछ इस तरह...

गांव-कस्बे के सहज बोल बचन हैं- ऐ ना पेलो के अलावा, यहां जो बाकी शब्द हैं, उनका मूल अरबी भाषा में है। लम्बरदार बिगड़ा हुआ रूप है अलमबरदार का। अलम का मायने है झंडा, और बरदार फ़ारसी का प्रत्यय है, जिसका अर्थ है उठाने वाला। तो झंडा लेकर आगे-आगे चलने वाले को अलमबरदार कहा जाता है। और अपनी देशज भाषा में भी इसका लगभग यही अर्थ है। नेता मुखिया के लिए प्रयुक्त होता है। जियादा में ज़ियाद: फेरबदल नहीं हुई, मगर लन्तरानी! लन्तरानी का अर्थ है, 'तू मुझे नहीं देख सकता`। अयं? ये शब्द है कि वाक्य? असल में ये वाक्य ही है, जो ईश्वर ने मूसा से कहा है। जब मूसा ने उनको देखने की इच्छा प्रगट की। ईश्वर का यहां पर तौर ये है कि कहां मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर और कहां तू एक अदना मनुष्य। इसी मूल भावना को ध्यान में रख कर इस वाक्य का प्रयोग एक मुहावरे के बतौर होता है। बहुत-बहुत बड़ी बड़ी बातें पेलने वाली प्रवृत्ति को चिन्हित करने के लिए। इतनी मासूम सी बात है, क्या आप को लग रहा है कि मैं लनतरानी पेल रहा हूं?

अगली बार हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा के चंद रूपक पेश करेंगे।

अभिव्यक्ति के दरवाज़े पर इंटरनेटीय अनंत की दस्तक

साहित्य की शुरुआत नीली स्याही से हुई होगी। पहले तालपत्र, फिर एक अदद कलम और तब सादा काग़ज। मानस तालपत्र पर लिखा गया होगा, लेकिन १८वीं और १९वीं सदी की महान कृतियों को काग़ज के कारखानों ने संजीवनी दी। छापेखानों ने इसे धरोहर होने के लिए ज़मीन दी। फिर टाइपराइटर के शोर में खामोश दिमाग से लिखी गयी कई किताबों को नोबेल प्राइज़ भी मिला। धीरे-धीरे लिखना-पढ़ना कारोबारी तकनीक की तरह नये नये ईजाद से सहारा पाने लगा। अब ढेर सारे लोग कंप्यूटर पर लिखते हैं। ये ईजाद मन की दौड़ के हिसाब से आपका सृजन पन्नों पर उतारता है।

उदारीकरण के बाद देश के दफ्तर कंप्यूटर के हवाले हो गये। हालांकि अब भी आदमियों की दरकार खत़्म नहीं हुई, क्योंकि मशीनें मेमोरी से तो भरी होती हैं, लेकिन मस्तिश्क से महरूम। इस देश में साक्षर आबादी का १५ फीसदी हिस्सा दफ्तरों में जाता है। श्रम के लिए कायदे से महीने में तनख्वाह पाता है। हिंदी साहित्य को इसका दशमांश भी नहीं पढ़ता है और लिखने वालों की तादाद दशमलव कुछ कुछ फीसदी है। दशमलव कुछ कुछ का ये तबका अभी भी अपनी लेखकीय प्रतिबद्धताओं को लेकर मानकीकरण का शिकार है। कि वाक्य ऐसे लिखे जाते हैं, कविता कुछ इसी तरह से फूट सकती है, कहानियां सिर्फ पात्रों की ही हो सकती है, और बेहतर लिखाई तो सिर्फ कलम से ही हो सकती है।

आज इंटरनेट का वक्त है, और तमाम तरह के मानकीकरण के ध्वस्त होने का भी वक्त है। अब किताबों के लिए प्रकाशक नहीं चाहिए। आप लिखें, कंप्यूटर पर डालें और इंटरनेट से दुनिया भर के लिए जारी कर दें। लोग इत्मीनान से पढ़ना चाहेंगे, तो दफ्तर से प्रिंट आउट निकाल लेंगे। इतनी चोरी के लिए हमारी नैतिकता भी जगह दे देती है। हम बात करेंगे कि इंटरनेट कैसे हमारी सभ्यता को एक नयी शक्ल दे रहा है, अभिव्यक्ति के रास्तों पर कैसे कोलतार बिछा रहा है और विधाओं के मानकीकरण में कैसे तोड़-फोड़ मचा रहा है। इन मसलों पर बात अवधारणा और परिभाशाओं की ज़मीन पर करने से बेहतर है कुछ मसलन, जिसे खांटी हिंदी में उदाहरण के तौर पर कहते हैं, उसमें बात की जाए।

मसलन... सदी के शुरू में बहुत सारी किताबों के साथ प्रेमचंद का सोज़े-वतन प्रतिबंधित किया गया। साठ के दशक में नक्सली किताबें रखने वालों को कैद मिली और बहुधा इनकाउंटर भी मिला। दुनिया में आज भी किताबें बैन हो रही हैं, लेखकों को दरबदर होना पड़ता है और मौत के फतवे सुनाये जाते हैं। एक हादसा पिछले दिनों मिस्र के अलेक्ज़ेन्ड्रिया भाहर में हुआ, जब एक ब्लॉगर को व्यवस्था के विरोध में आर्टिकल लिखने के लिए चार साल की कैद हो गयी। २२ साल के अब्दुल करीम नाबिल नाम का ये भाख्स मिस्र के मशहूर अल-अज़हर युनिवर्सिटी का छात्र था और अपने ब्लॉग पर वो युनिवर्सिटी की खामियों के बारे में लिखा करता था।

अपने मुल्क में भी हिंदी के ब्लॉगरों पर २००६ के जुलाई महीने में बैन लगा दिया गया था। लेकिन मीडिया ने सरकार को इस सवाल पर सांसत में डाल दिया और आखिऱकार बैन हटाना पड़ा। ये ब्लॉग है क्या चीज़? एक डॉट कॉम होता है। पूरी की पूरी वेबसाइट- जैसे हंस, तद्भव, बीबीसी, गूगल और याहू। ये पत्रिका की तरह काम करती है। इसे एक समूह संचालित करता है और इसके लिए वेब स्पेस खऱीदनी पड़ती है। ब्लॉग के लिए आपको ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। गूगल, वर्डप्रेस और बहुत सारी वेबसाइट आपको अनगिनत पन्ने सौंपता है, और कहता है कि चाहे तो पूरी रामायण लिख लो। फिर आप अपनी पहली चौपाई लिखते हैं और चंद सेकेंड में आपकी चौपाई हवा में तैरने लगती है। धरती के किसी भी कोने में बैठा हुआ आदमी उसे गुन सकता है।

पूरी दुनिया में ब्लॉग क्रांति पिछले दशक का इजाद है। इसने अभिव्यक्ति के नये दरवाज़े खोले। ग्रुप ब्लॉग के ज़रिये ग्रुप नॉवेल भी लिखे गये। राजनीतिक प्रचार के हथकंडे की तरह इसका इस्तेमाल हुआ, और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिल़ाफ़ तथ्य रखे गये। इराक युद्ध के बारे में ब्रिटेन और इराक के ब्लॉग्स पर लिखा गया कि ये मनुष्‍यता के निषेध का वीभत्सतम अभियान है। बहरहाल ब्लॉग, तकनीकी दुनिया के भाशाई संस्कारों वाले लोगों के लिए अभिव्यक्ति का नया औज़ार है। इतना आसान, कि पारंपरिक तरीकों से लेखन के रियाज़ वाले लोग भी इसमें दखल दे सकें।

अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। रवीश कुमार एनडीटीवी इंडिया में रिपोर्टर हैं। उनका ब्लॉग है: कस्बा। वे रोज़ इस पर कुछ न कुछ लिखते हैं। १५ मार्च को उन्होंने पोस्ट किया- मुंशी प्रेमचंद की पहली विदर्भ यात्रा। सामाजिक कल्पनाशीलता का ऐसा मार्मिक वृत्तांत कि पढ़कर रोने को जी करता है। एक हिस्सा कुछ इस तरह है-

हमारी खब़र पर भी सरकार का असर नहीं होता। पी साईंनाथ की खब़रों पर भी कोई असर नहीं। साईंनाथ तो विदर्भ के किसानों के पीछे पागल हो गये हैं। सुप्रिया धीरे से कहती है- मुंशी जी इस बार कुछ नया लिख दीजिए ताकि आपको बुकर मिल जाए और किसानों को रास्ता। मगर इस बार किसानों को नियतिवाद में मत फंसाना। मत लिखना कि किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में मरता है।

वक्त मिले तो आप ज़रूर पढ़ें। इस बार इतना ही। अगली बार इंटरनेटीय अनंत के कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक रूपक से हम आपको वाबस्ता कराएंगे।

हिंदी में ब्‍लॉगिंग बूम

वो एक कस्‍बा था, जहां वही हवा बहती थी, जो दिल्‍ली कलकत्ता बनारस में बहती थी। लेकिन दिल्‍ली कलकत्ता बनारस से कुछ पत्रिकाएं निकलती थीं, जहां वे लोग जब चाहे छप जाते थे, जो उन शहरों में रहते थे। हमारे शहर में एक पुस्‍तक भंडार था (जहां से कुछ पत्रिकाएं निकलती थीं), जो बंद हो चुका था और ज़्यादातर लेखक अक्‍सर पत्रिकाओं से वापस लौटे कविता के लिफाफे लेकर मायूस टहला करते थे।

यही मायूसी कभी मुक्तिबोध के हिस्‍से का भी अंधेरा थी। सुनते हैं, अपनी जिंदगी में उन्‍हें उस तरह नहीं समझा गया, जितना उनके मरने के बाद। नेमिचंद जैन की मेहरबानी से हिंदी वालों को मुक्तिबोध नसीब हुए। मुक्तिबोध से पहले निराला का भी हाल बुरा था। सरस्‍वती से रचनाएं लौट जाती थीं और वे उदास अपने लॉन की घास उखाड़ते हुए अपनी कविताई को संदेह से देखा करते थे। निराला तो फिर भी इलाहाबाद में रहते थे, जो उस वक्‍त साहित्‍य की राजधानी थी, लेकिन मुक्तिबोध सागर के मोहल्‍ले में बसर करते थे।

ये संदर्भ और कुछ कुछ भूमिका इसलिए कि अभिव्‍यक्ति के शिखर पर बैठे लोगों को भी जगह-जमीन पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। साफ था कि अभिव्‍यक्ति के मंच थोड़े थे। एक बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय था और एक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी थे और एक नामवर सिंह हैं। हिंदी का जो भी चित्र हमारे सामने बिखरा हुआ हैं, उनमें थोड़े से लोगों के रंग हैं। जबकि काग़ज़ पर लिख-लिख कर आलमारी भरने वाले हज़ारों लेखकों की दुनिया कभी प्रकाशित नहीं हो पायी। ऐसा नहीं कि सब कूड़ा था- अपने आस-पड़ोस को उन सबके सृजन ने थोड़ा-थोड़ा संवारा होगा।

लंबे समय के बाद अब ये वक्‍त है, जब अंतर्जाल की आलमारी ने एक आम अभिव्‍यक्ति से भी अप्रकाशित रहने की पीड़ा छीन ली है। इस आलमारी की कुंजी हर उस आदमी के पास है, जो कंप्‍यूटर पर थोड़ी बहुत कारीगरी करना जानता है। पूरी दुनिया में ब्‍लॉगिंग बूम आया हुआ है। इसका असर इराक युद्ध के समय देखा गया, जब अमेरिका को अपने अपने ब्‍लॉग्‍स के जरिये सैकड़ों लोगों ने मां-बहन की गाली दी। अभिव्‍यक्ति का अभिजात रातोंरात एक ऐसे भदेस बाने में लोगों को लिपटा हुआ मिला, जो टूटे फूटे वाक्‍यों में लोगों से अपनी कहानी कह रहा था।

सवाल ये है कि क्‍या हम वो सब लिख सकते हैं, जो मन के काग़ज़ पर धुंधले वाक्‍यों में पहली बार उतरता है। लिख सकते हैं और लोग लिखते भी रहे होंगे। लेकिन दुनिया तक पहुंचने वाले सारे वाक्‍य संपादित होते रहे हैं, क्‍योंकि ऑडिएंस और एक्‍टर के बीच में एक निर्देशक-संपादक का होना अभिव्‍यक्ति की नियति रहा है। ब्‍लॉगिंग ने इस नियति को चुनौती दी है।

हिंदी में ब्‍लॉगिंग तीन साल पहले का वाक़या है, और अब हज़ार की तादाद पहुंचने ही वाली है। इतने कम समय में अपने दौर पर इसका दखल साबित करता है कि ये कोई ऐसी चीज़ है, जिसे नज़रअंदाज़ करना अपने दौर को नज़रअंदाज़ करना है। हिंदी में ब्‍लॉगिंग शुरू से ही कहने के तरीकों, शब्‍दों के चयन की आज़ादी और वे सारे बंधन तोड़ने को उतावला है, जो काग़ज़ कलम के जरिये नहीं टूट पाया।

सबसे पहले एक युवा ब्‍लॉगर को नारद एग्रीगेटर वालों ने बैन किया, जिसने बनारस की होलियाना शैली में एक संस्‍मरण लिखा। फिर इसी एग्रीगेटर ने अपने एक सदस्‍य को गाली देने वाले ब्‍लॉगर का ब्‍लॉग दिखाना बंद कर दिया। अभी अभी याहू वालों ने एक गालीगलौज करने वाले हिंदी के ब्‍लॉगर का ब्‍लॉग ब्‍लॉक कर दिया। लेकिन इस पूरी प्रतिबंध कथा में कुछ और एग्रीगेटर सामने आये, जिन्‍होंने पेशेवर अंदाज़ अपनाते हुए ब्‍लॉग में आने वाले कंटेंट से अपने को अलग रखा।

अंतर्जाल उनके लिए है, जिनके लिए इतिहास में कोई जगह नहीं थी। एक आम कामगार और किरानी, जिसकी कहानी इतिहास के लिए कोई मायने नहीं रखती थी, उनकी कहानी भी अब कायदे से अंतर्जाल पर मौजूद रहेगी। भविष्‍य के इतिहासकारों को अंतर्जाल के दौर की दुनिया को लिखना उतना ही आसान होगा, जितना कठिन हड़प्‍पा और मोहनजोदड़ों के वक्‍त का पता लगाना था। सिर्फ वही कहानी नहीं, जो एक जीवन में बाहर से दिखती है। मन का पूरा इतिहास ब्‍लॉगिंग पर लिखा जाने लगा है।

दिल्‍ली और इसके आसपास के शहरों में काम करने करने वाले हिंदी के करीब अस्‍सी पत्रकारों का एक कम्‍युनिटी ब्‍लॉग है, जो अपने मन की भड़ास वहां निकालते हैं। बॉस, स्‍त्री, परंपरा और पैसा को लेकर कुंठा भी वहां कुछ इस अंदाज़ में प्रकाशित होती है, जैसे कई मौक़ों पर हम और आप मन ही मन भुनभुनाते हैं। ये भुनभुनाहट भी अब अभिव्‍य‍क्‍त हो रही है और इसका श्रेय ब्‍लॉगिंग बूम को है।

प्रतीक्षा उस दिन की है, जब हिंदी के ब्‍लॉगर अंग्रेज़ी ब्‍लॉगरों की तरह लिख-लिख कर धन कमाने लगेंगे और उन्‍हें लगेगा कि ब्‍लॉगिंग भी एक पूरा का पूरा काम है। फिलहाल तो दफ्तर और घर के कामों से वक्‍त चुरा कर ब्‍लॉगिंग को अंजाम दिया जा रहा है। हम इस स्‍तंभ में हर बार ब्‍लॉग पर आने वाले बेहतरीन कंटेंट की चर्चा करेंगे और ये बताने की कोशिश करेंगे कि ब्‍लॉग कैसे हिंदी का मिज़ाज बदल रहा है, कैसे प्रकाशन के कारोबारियों को चुनौती दे रहा है।