वो एक कस्बा था, जहां वही हवा बहती थी, जो दिल्ली कलकत्ता बनारस में बहती थी। लेकिन दिल्ली कलकत्ता बनारस से कुछ पत्रिकाएं निकलती थीं, जहां वे लोग जब चाहे छप जाते थे, जो उन शहरों में रहते थे। हमारे शहर में एक पुस्तक भंडार था (जहां से कुछ पत्रिकाएं निकलती थीं), जो बंद हो चुका था और ज़्यादातर लेखक अक्सर पत्रिकाओं से वापस लौटे कविता के लिफाफे लेकर मायूस टहला करते थे।
यही मायूसी कभी मुक्तिबोध के हिस्से का भी अंधेरा थी। सुनते हैं, अपनी जिंदगी में उन्हें उस तरह नहीं समझा गया, जितना उनके मरने के बाद। नेमिचंद जैन की मेहरबानी से हिंदी वालों को मुक्तिबोध नसीब हुए। मुक्तिबोध से पहले निराला का भी हाल बुरा था। सरस्वती से रचनाएं लौट जाती थीं और वे उदास अपने लॉन की घास उखाड़ते हुए अपनी कविताई को संदेह से देखा करते थे। निराला तो फिर भी इलाहाबाद में रहते थे, जो उस वक्त साहित्य की राजधानी थी, लेकिन मुक्तिबोध सागर के मोहल्ले में बसर करते थे।
ये संदर्भ और कुछ कुछ भूमिका इसलिए कि अभिव्यक्ति के शिखर पर बैठे लोगों को भी जगह-जमीन पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। साफ था कि अभिव्यक्ति के मंच थोड़े थे। एक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय था और एक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी थे और एक नामवर सिंह हैं। हिंदी का जो भी चित्र हमारे सामने बिखरा हुआ हैं, उनमें थोड़े से लोगों के रंग हैं। जबकि काग़ज़ पर लिख-लिख कर आलमारी भरने वाले हज़ारों लेखकों की दुनिया कभी प्रकाशित नहीं हो पायी। ऐसा नहीं कि सब कूड़ा था- अपने आस-पड़ोस को उन सबके सृजन ने थोड़ा-थोड़ा संवारा होगा।
लंबे समय के बाद अब ये वक्त है, जब अंतर्जाल की आलमारी ने एक आम अभिव्यक्ति से भी अप्रकाशित रहने की पीड़ा छीन ली है। इस आलमारी की कुंजी हर उस आदमी के पास है, जो कंप्यूटर पर थोड़ी बहुत कारीगरी करना जानता है। पूरी दुनिया में ब्लॉगिंग बूम आया हुआ है। इसका असर इराक युद्ध के समय देखा गया, जब अमेरिका को अपने अपने ब्लॉग्स के जरिये सैकड़ों लोगों ने मां-बहन की गाली दी। अभिव्यक्ति का अभिजात रातोंरात एक ऐसे भदेस बाने में लोगों को लिपटा हुआ मिला, जो टूटे फूटे वाक्यों में लोगों से अपनी कहानी कह रहा था।
सवाल ये है कि क्या हम वो सब लिख सकते हैं, जो मन के काग़ज़ पर धुंधले वाक्यों में पहली बार उतरता है। लिख सकते हैं और लोग लिखते भी रहे होंगे। लेकिन दुनिया तक पहुंचने वाले सारे वाक्य संपादित होते रहे हैं, क्योंकि ऑडिएंस और एक्टर के बीच में एक निर्देशक-संपादक का होना अभिव्यक्ति की नियति रहा है। ब्लॉगिंग ने इस नियति को चुनौती दी है।
हिंदी में ब्लॉगिंग तीन साल पहले का वाक़या है, और अब हज़ार की तादाद पहुंचने ही वाली है। इतने कम समय में अपने दौर पर इसका दखल साबित करता है कि ये कोई ऐसी चीज़ है, जिसे नज़रअंदाज़ करना अपने दौर को नज़रअंदाज़ करना है। हिंदी में ब्लॉगिंग शुरू से ही कहने के तरीकों, शब्दों के चयन की आज़ादी और वे सारे बंधन तोड़ने को उतावला है, जो काग़ज़ कलम के जरिये नहीं टूट पाया।
सबसे पहले एक युवा ब्लॉगर को नारद एग्रीगेटर वालों ने बैन किया, जिसने बनारस की होलियाना शैली में एक संस्मरण लिखा। फिर इसी एग्रीगेटर ने अपने एक सदस्य को गाली देने वाले ब्लॉगर का ब्लॉग दिखाना बंद कर दिया। अभी अभी याहू वालों ने एक गालीगलौज करने वाले हिंदी के ब्लॉगर का ब्लॉग ब्लॉक कर दिया। लेकिन इस पूरी प्रतिबंध कथा में कुछ और एग्रीगेटर सामने आये, जिन्होंने पेशेवर अंदाज़ अपनाते हुए ब्लॉग में आने वाले कंटेंट से अपने को अलग रखा।
अंतर्जाल उनके लिए है, जिनके लिए इतिहास में कोई जगह नहीं थी। एक आम कामगार और किरानी, जिसकी कहानी इतिहास के लिए कोई मायने नहीं रखती थी, उनकी कहानी भी अब कायदे से अंतर्जाल पर मौजूद रहेगी। भविष्य के इतिहासकारों को अंतर्जाल के दौर की दुनिया को लिखना उतना ही आसान होगा, जितना कठिन हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के वक्त का पता लगाना था। सिर्फ वही कहानी नहीं, जो एक जीवन में बाहर से दिखती है। मन का पूरा इतिहास ब्लॉगिंग पर लिखा जाने लगा है।
दिल्ली और इसके आसपास के शहरों में काम करने करने वाले हिंदी के करीब अस्सी पत्रकारों का एक कम्युनिटी ब्लॉग है, जो अपने मन की भड़ास वहां निकालते हैं। बॉस, स्त्री, परंपरा और पैसा को लेकर कुंठा भी वहां कुछ इस अंदाज़ में प्रकाशित होती है, जैसे कई मौक़ों पर हम और आप मन ही मन भुनभुनाते हैं। ये भुनभुनाहट भी अब अभिव्यक्त हो रही है और इसका श्रेय ब्लॉगिंग बूम को है।
प्रतीक्षा उस दिन की है, जब हिंदी के ब्लॉगर अंग्रेज़ी ब्लॉगरों की तरह लिख-लिख कर धन कमाने लगेंगे और उन्हें लगेगा कि ब्लॉगिंग भी एक पूरा का पूरा काम है। फिलहाल तो दफ्तर और घर के कामों से वक्त चुरा कर ब्लॉगिंग को अंजाम दिया जा रहा है। हम इस स्तंभ में हर बार ब्लॉग पर आने वाले बेहतरीन कंटेंट की चर्चा करेंगे और ये बताने की कोशिश करेंगे कि ब्लॉग कैसे हिंदी का मिज़ाज बदल रहा है, कैसे प्रकाशन के कारोबारियों को चुनौती दे रहा है।
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1 comment:
यह हो सकता है कि कोई कंपनी वाला आपको हिन्दी में लिखने के पैसे इस बात के लिये दे दे कि आप उसके उत्पाद के बारे में लिख दें पर स्वतंत्र लेख लिख कर विज्ञापन के द्वारा हिन्दी चिट्ठाकार को पैसा कमाने में समय लगेगा। हां यह हो सकता है कि जबरदस्ती क्लिक कर कोई कुछ पैसा कमा ले।
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