ब्‍लॉगिंग में कहन के पुराने कारीगर

हम अक्‍सर कुछ पन्‍नों के ख्‍वाब देखते हैं, जिन पर अपनी पसंद की संवेदनाएं, शब्‍द और रोज़मर्रा के कुछ-कुछ संदर्भ जब चाहें सजाते रहें। डायरी इन्‍हीं ख्‍वाबों के बीच चलन में आयी होगी। यहां तक कि ऐसे ही ख्‍वाबों से बेचैन होकर किसी ने डायरी का ईजाद भी किया होगा। हममें से कइयों के पास साल के शुरू में डायरी आती होगी, कुछ पन्‍ने भरते होंगे और कई बार सादे ही छूट जाते होंगे। आप जब भी पीछे मुड़ कर देखना चाहेंगे, उन सादे पन्‍नों के बीच टीले-टापू की तरह उगी हुई स्‍याही आपका अतीत मोह और जगा देगी। कई बार ये ख्‍वाहिश जगती है कि आप अपनी ज़‍िंदगी दूसरों के साथ भी साझा करें। कई बार आप उसे अपनी विनम्रता में टालते हैं, और कई बार आपको लगता है कि आपकी अपनी निजी ज़‍िंदगी में अभिव्‍यक्ति के सार्वजनिक मंचों की दिलचस्‍पी क्‍यों होगी। मोहन राकेश की डायरी में भी किसने दिलचस्‍पी ली थी। वो भी तो बाद मरने के उनके घर से निकल पाया।

बहरहाल, ये सारी छवियां एक अदद डायरी और एक अदद कलम की अनिवार्यता से जुड़ी हुई छवियां हैं। अब आपके पास कलम नहीं है। इसलिए नहीं कि वो बाज़ार में नहीं बिकती। बिकती है, और ख़रीदने वाले अब भी ख़रीदते हैं। लिखने वाले अब भी कलम से ही लिखते हैं। लेकिन कंप्‍यूटर शिक्षा की आंधी में जो नस्‍लें बड़ी हो रही हैं, उनका ताल्‍लुक कलम और काग़ज़ से धीरे-धीरे कम हो रहा है। वे की-बोर्ड के सिपाही बन रहे हैं। यानी अपनी बात कहने का हथियार बदल गया। इंटरनेट सस्‍ता होने के बाद इस हथियार की सहूलियत ये है कि आपका मन, आपकी डायरी, आपकी ज़‍िंदगी आप सबसे साझा कर सकते हैं और ब्‍लॉगिंग के ज़रिये इसका सिलसिला शुरू भी हो गया है।

उदय प्रकाश हिंदी के बड़े कथाकार हैं। उनको पढ़ना एक जादूई अनुभव से गुज़रना है। तिरिछ, वारेन हेंस्टिंग्‍स का सांड, पॉल गोमरा का स्‍कूटर, और अंत में प्रार्थना और दिल्‍ली की दीवार जैसी कहानियां पढ़ते हुए हममें से कइयों ने कहानियों की अपनी समझ विकसित की होगी। हिंदी के सारे मंच उनके लिए उपलब्‍ध हैं, इसके बावजूद उन्‍होंने हिंदी ब्‍लॉगिंग में अपने लिए भी एक कोना चुना है। ख़ास बात ये है कि उस कोने में वे उन चीज़ों को ज़्यादा तवज्‍जो दे रहे हैं, जो उन्‍हें अच्‍छी लग रही हैं। कोई कविता, कोई स्‍केच। ये जानना सचमुच दिलचस्‍प है कि जो सबसे अधिक पढ़े और पसंद किये जाते हैं, उनकी पसंद क्‍या है। उदय प्रकाश का ब्‍लॉग उदय प्रकाश की पसंद बताता है।

ज्ञानरंजन के संपादन में कई दशकों से निकलने वाली हिंदी की ज़रूरी पत्रिका पहल में छपी शाकिर अली की कुछ कविताएं उदय को इतनी पसंद आयीं कि उन्‍होंने एक लंबी भूमिका के साथ उसे अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित की। छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम का खौफनाक मंज़र पेश करने वाली एक कविता स्‍कूल बंद है उन्‍हीं में से एक है।
मोटरसाइकिल से स्कूल जाते गुरुजी को
किसी ने आवाज दी- रुको !
गुरुजी डर के मारे नहीं रुके,
पता नहीं जंगल में कौन रोक रहा है?

पीछे से गोली चली,
गुरुजी खून से लथपथ गिर पड़े थे,

तभी से कोन्गुड का स्कूल बन्द है !!
शाकिर अली की कविताओं को पेश करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं कि जब हमारी आज की समकालीन हिंदी कविता दिल्‍ली, भोपाल और दूसरी राजधानियों के कवियों की मित्र मंडलियों के ऊबाऊ और एक-दूसरे को उठाने-गिराने की लिजलिजी भाषाई बाजीगरी, महान होने और महान बनाने की संस्‍थाखोर जुगाड़ू तिकड़म और विचारधाराओं की आड़ में हिंसक जातिवादी अभियानों में बदल चुकी है, शाकिर अली की कविता विपदा में घिरे हमारे समय के कमज़ोर और ग़रीब लोगों के जीवन के भयावह दृश्‍य प्रस्‍तुत करती है।

उदय प्रकाश ने कुंवर नारायण के जन्‍मदिन पर अपनी पसंद की उनकी एक कविता भी अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित की। बहरहाल, एक कथाकार, जो एक कवि भी है, लेकिन अपनी कहानियों से पाठकों को दीवाना बना रहा है, उसे इन दिनों क्‍या कुछ बेचैन कर रही है, ये जानने के लिए अब उन्‍हें ख़त लिखने से बेहतर है, उनके ब्‍लॉग की यात्रा करें। पता बड़ा सीधा सा है, uday-prakash.blogspot.com।

कवि विष्‍णु नागर ने भी ब्‍लॉगिंग शुरू की है। वे पत्रकार भी हैं और व्‍यंग्‍य कथाएं भी रचते हैं। उनका ब्‍लॉग (alochak.blogspot.com) कुछ कविताओं और व्‍यंग्‍य कथाओं से सजा हुआ है। वहां ईश्‍वर की चार कहानियां मौजूद हैं, जिनमें से एक कुछ इस तरह है:
ईश्‍वर ईश्‍वर होकर भी उस दिन भूखे थे। दोपहर का वक्‍त था। दो आदमी बातें कर रहे थे, 'आदमी को बस आदमी का प्‍यार चाहिए।'

'और अगर दोपहर का एक बज चुका हो तो खाना भी चाहिए', ईश्‍वर ने कहा।

लेकिन लोगों ने उनकी बात पर ध्‍यान नहीं दिया।
इनके अलावा पत्रकार राजकिशोर (raajkishore.blogspot.com) और सत्‍येंद्र रंजन (left-liberal.blogspot.com) ने भी ब्‍लॉगिंग शुरू की है। ये सारे ब्‍लॉग हिंदी ब्‍लॉगिंग की सबसे हालिया गतिविधि हैं। इस गतिविधि का मानी ये निकलता है कि कहन के वे कारीगर, जिन्‍हें हिंदी के पुराने-पारंपरिक मंचों पर जगह मिलने में कोई कठिनाई नहीं है, वे भी अभिव्‍यक्ति की इस नयी जगह-ज़मीन को गंभीरता से ले रहे हैं। साथ ही ये भी मानना चाहिए कि वो ऑडिएंस, जिनके पास किताबों के साथ वक्‍त गुज़ारने की फुर्सत नहीं है, उन्‍हें भी ये लेखक-पत्रकार गंभीरता से ले रहे हैं और अपनी सोच-समझ ब्‍लॉगिंग के ज़रिये उनसे साझा कर रहे हैं।

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